सज्जाद हुसैन

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सज्जाद हुसैन
🎂 15 जून, 1917
जन्म भूमि सीतामऊ, केन्द्रीय भारत एजेंसी (अब मध्य प्रदेश)
⚰️21 जुलाई, 1995
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र हिन्दी सिनेमा
प्रसिद्धि संगीतकार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी 'संगदिल', 'सैयां', 'खेल', 'हलचल' और 'रुस्तम-सोहराब' जैसी फ़िल्मों से अनूठा संगीत देने में सफल रहे सज्जाद साहब उस ज़माने में पार्श्वगायकों व गायिकाओं के लिए कठिन फ़नकार थे, जिनकी धुनों को निभा ले जाना सबके हौसले से परे की चीज़ थी।

सज़ाद हुसैन का जन्म 1917 में सीतामऊ में हुआ था, जो उस समय तत्कालीन केन्द्रीय भारत एजेंसी का एक गांव, जिसे अब मध्य प्रदेश कहा जाता था। एक बच्चे के रूप में, उन्हें अपने पिता मोहम्मद अमीर खान द्वारा सितार सिखाया गया था। सज्जाद हुसैन ने अपने किशोरी के वर्षों में वीणा, वायलिन, बांसुरी और पियानो सीखा। वह एक सफल खिलाड़ी भी थे।

मुम्बई आगमन

सन 1937 में सज़ाद हुसैन ने फ़िल्म संगीतकार के रूप में अपनी किस्मत आजमाने का फैसला किया और अपने बड़े भाई निसार हुसैन के साथ बम्बई (वर्तमान मुम्बई) आ गए। उनका पहला काम सोहराब मोदी के मिनर्वा मूवीटोन में 30 महीने पर था। बाद में वह वाडिया मूवीटोन में चले गए, जो कि 60 रुपये महीने पर था। अगले कुछ वर्षों के दौरान सज़ाद हुसैन ने संगीतकार मीर साहेब और रफ़ीक़ ग़ज़नवी के सहायक और शौकत हुसैन रिज़वी के साथ काम किया।

'संगदिल', 'सैयां', 'खेल', 'हलचल' और 'रुस्तम-सोहराब' जैसी फ़िल्मों से अनूठा संगीत देने में सफल रहे सज्जाद साहब, दरअसल उस ज़माने में पार्श्वगायकों व गायिकाओं के लिए कठिन फ़नकार थे, जिनकी धुनों को निभा ले जाना सबके हौसले से परे की चीज़ थी। उनकी दुरूह संगीत-शब्दावली को समझना हर एक के बस की बात नहीं थी। फिर भी अधिकांश कलाकारों ने उनकी तबीयत के हिसाब से ही अपना बेहतर देने का काम किया।

कॅरियर

स्वयं लता मंगेशकर का कहना था कि "मैं सज्जाद साहब की 'संगदिल' के गीतों को अपने कॅरियर में एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखती हूँ। मैं इतना ही कह सकती हूँ कि ऐसा म्यूज़िक, जो सज्जाद हुसैन बनाते थे और किसी ने बनाया ही नहीं है।" सज़ाद हुसैन अपने पार्श्वगायन के कॅरियर में कुछ सबसे कठिन गीतों का संगीत तैयार किया। 'ऐ दिलरुबा नज़रें मिला' लगभग ऑफ़ बीट संगीत का सुन्दरतम उदाहरण है। यह फ़िल्म एक हद तक सज्जाद हुसैन द्वारा संगीतबद्ध सबसे उल्लेखनीय फ़िल्म के रूप में याद की जा सकती है, जिसमें संगीतकार ने लता जी के अलावा दो अन्य महत्वपूर्ण पार्श्वगायिकाओं से दो अप्रतिम गीत गवाए हैं। इसमें सुरैया की आवाज़ में 'ये कैसी अज़ब दास्ताँ हो गयी है' और आशा भोंसले की आवाज़ में 'अब देर हो गयी वल्लाह' को याद किया जा सकता है। सन 1944 में आई 'दोस्त' फ़िल्म में उनका और नूरजहां का साथ कमाल का रंग लिए हुए था। इस फ़िल्म का एक गीत 'बदनाम मुहब्बत कौन करे' तो आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में एक महान गीत की तरह संरक्षित है।

कुशल वाद्य वादक

मैंडोलिन, एकॉर्डियन, गिटार, क्लैरोनेट, वॉयलिन, पियानो, बैंजो- लगभग सभी वाद्यों पर सज्जाद साहब की पकड़ देखने लायक थी। तानों, मींड़ और मुरकियों पर उनका प्रयोग फ़िल्मीं धुनों के सन्दर्भ में एक नए क़िस्म का असर पैदा करता है, जो लगभग हर दूसरी कंपोज़ीशन में आसानी से सुनकर पकड़ सकते हैं। उनके लिए नूरजहां भी एक बेहद ज़रूरी गायिका के रूप में उनकी संगीत-यात्रा में शामिल रहीं।

संगीत प्रेमी

सज्जाद साहब के गर्म और अक्खड़ स्वभाव के कई किस्से चर्चित रहे हैं, जो कहीं न कहीं से उनके संगीत के प्रति दीवानगी का सबब ही लगते हैं। एक क़िस्सा तो यह बहुत मशहूर रहा कि वे नूरजहां और लता मंगेशकर के अलावा किसी और को गाने के लायक मानते ही न थे। यह अलग बात है कि उन्होंने कई गायक-गायिकाओं से अपनी संगीतबद्ध फ़िल्मों में कुछ बेहद सुन्दर गीत गवाए।

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